येे जग सारा अपना नहीं,
जरा आँखें खोल के देख कोई सपना तो नहीं?
किससे करें फरियाद?
हमारी किसी को आती नहीं याद…?
हर किसी को मिले खुशी संभव नहीं,
ये इल्म है सच्चा, हर किसी को आता नहीं?
अपनी बातें किसे सुनाएं?
अपने दुखड़े किसे दिखाएं?
हम कोई आसमां के फरिश्ते नहीं,
शायद इसीलिए लोग हमें अपनाते नहीं |
हमारे चेहरे को कोई पढ़े?
पढ़े तो वो फिर न हमसे लड़े |
यहाँ किसी को कमजोर समझना नहीं,
आगे-पीछे का कोई कुछ सोचता ही नहीं?
हमारे हिस्से में शाम नहीं,
तो किसी के हिस्से में सवेरा नहीं?
हमें किसी ने पहचाना नहीं,
और हमने भी कोई पहचान निकाली नहीं?
कितना निष्ठुर निकला जमाना?
जिसे हमने हृदय से अपना माना |
– मुकेश कुमार ऋषि वर्मा ग्राम रिहावली, पो. तारौली, फतेहाबाद, आगरा, 283111