भारतवर्ष की तरह हमारे न्यू इंडिया में भी त्योहारों के मौसम में खूब मज़ा आता है। चाहे देशभर में आर्थिक सुस्ती की अफवाहें हों, विकासजी के दबाव में जूझती ज़िंदगी से वक्त चुरा कर जीवन का उत्सव मनाना हमें अभी तक भूला नहीं है। पूरा साल हम बिन मुद्दों के लड़ते रहें लेकिन हजारों साल से त्योहार नियमित आकर हमें हिलामिला कर ज़िंदगी से प्यार करने का संबल प्रदान करते हैं। बाज़ार के विज्ञापन ग्राहक को कई सप्ताह पहले ही पटाना शुरू कर देते हैं। वस्तुतः पूरी दुनिया के बाज़ारों का दारोमदार इंसानियत पर नहीं इन उत्सवों पर टिका है। बाज़ार के लिए तो हर दिन त्योहार है। पिछले साल लंदन स्थित यूरोप के सबसे बसे डिपार्ट्मेंटल स्टोर ‘सेलफ्रिजेस’ ने कई महीने पहले क्रिसमस से संबधित सामान की बिक्री शुरू कर दी थी।
हमारे यहां पार्किंग व अंदरूनी अच्छी सड़कें नहीं हैं फिर भी कारें खरीद रहे हैं। कार बेचने वालों का व्यवसाय भी तो चलाना है। रूठी और अधिकारों के प्रति जागरूक हो चुकी पत्नी को मनाने का सुनहरी मौका (चाहे ईएमआई रूपी कर्ज़ लेकर) त्योहार देते हैं। इन दिनों ‘आतंकवादियों’ को भी छुट्टी मिलती है वे भी उत्सवों की सुरक्षात्मक दिवारों के बीच अपनों से मिल लेते हैं। त्योहारों के अवसर पर कोई भी चैनल भारतीय परम्परा के अनुसार दिए लिए रहे उपहारों व वगैरा को स्टिंग नहीं बनाते। यह मौसम सभी के लिए सफल समय की तरह होता है जो व्यवसायियों से लेकर अफसर नेता व देश के सभी किस्म के ‘ठेकेदारों’ को मालामाल कर देता है। त्योहारों की कवरेज व संबधित कार्यक्रमों को स्तरीय बनाने के लिए प्रस्तुतकर्ता हमेशा मेहनत करते हैं मगर कुछ लोगों को कोई कुछ कह नहीं सकता क्योंकि उन्हें अभी भी सिफारिशी, अपरिपक्व, प्रयासहीन, लचर व कामचलाउ अंदाज़ में त्योहारों को निबटाना पड़ता है। भारतीय त्योहार सैंकड़ों बरस से जनजीवन का हिस्सा हैं मगर कई संचालक व हिस्सा हो रहे देशवासी कैसा कार्यक्रम रचते हैं देखकर लगता है कि उन्हें जर्बदस्ती पकड़कर लाया गया कि चलो यह कार्यक्रम करो। संचालक हो रहे व्यक्ति ने कहा तो होगा कि त्योहारों के अवसर पर पहनने के लिए आर्कषक ड्रैस नहीं है।
प्रोडयूसर ने समझाया होगा यार सरकारी कार्यक्रम है चलेगा। संचालक शहर की सड़कों पर, बाज़ारों में लोगों से सवाल पूछता है। दिवाली क्यों मनाते हैं इस सवाल के जवाब में एक प्राइवेट स्कूल के अपटूडेट विद्यार्थियों में से एक बताता है इस डे पर राम अंकल रावण अंकल को मार कर अपने होम वापिस आ गए थे। भारतीय जनता फैलते गीत संगीत व नाच के जलवे से कैसे बच सकती है सो संचालक गप्पशप्प के आखिर में सामयिक बात कहता है दीपावली के अवसर पर कोई गाना। दर्शक खुश दिवाली पर गाना, वाह। युवा होते चतुर बच्चे मिलकर हिलकर समूहनाचगान बिना झिझक पेश करते हैं,’ आंख मारे ……. आंख आंख आंख’। सभी चीखकर तालियां बजाते हैं। संचालक बताता है कि हम सब एक इसलिए हैं क्यंकि भारत एक है और इसमें इतने सारे त्योहार हैं जिन्हें हमने मिलजुलकर मनाना है। बात तो सही है, चाहे गर्मी, सर्दी और बरसात न हो लेकिन त्योहारों का सीज़न आना लाज़मी है।