उद्धव ठाकरे की ‘राम परिक्रमा’ के पीछे का कारण क्या है?
1 min readसाल 1992 में जब रथ यात्रा की राजनीति अपने चरम पर थी और कथाकथित बाबरी मस्जिद के विध्वंस की पटकथा लिखी गई थी तब उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए परोक्ष रुप से कोई सामने नहीं आ रहा था।
तभी बाल ठाकरे के एक बयान ने उन्हे हिंदुत्व का पुरोधा बनाकर खड़ा कर दिया। ठाकरे ने कहा था कि अगर बाबरी गिराने वाले शिवसैनिक हैं, तो मुझे उसका अभिमान है। हिन्दुत्व की राजनीति में भाजपा को पछाड़ने की होड़ में लगी शिवसेना की राजनीति में सटीक टायमिंग का हमेशा से बड़ा हाथ रहा है। चाहे 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने पर बाल ठाकरे द्वारा उसकी जिम्मेदारी लेना हो, या फिर लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उद्धव ठाकरे का ‘चलो अयोध्या’ का नारा लगाना हो या विधानसभा चुनाव से पहले मंदिर बनाने की प्रतिबद्ध्ता जताना हो। महाराष्ट्र की धरती से कभी-कभी की ओर अवतरित होने वाले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे पिछले 8 महीने में 2 बार अयोध्या का दौरा कर चुकते हैं। लोकसभा चुनाव से पहले मंदिर निर्माण के मुद्दे पर मोदी सरकार को जी भरकर कोसने और ‘पहले मंदिर फिर सरकार’ का नारा बुलंद करने वाले ठाकरे एक बार फिर राम लला के द्वार पहुंचे और मंदिर बनकर रहेगा की बात कह गए।
लोकसभा चुनाव से पहले के उद्धव के तेवर और वर्तमान के अंदाज में फर्क भी नजर आया। चुनाव से पूर्व सख्त और तीखे तेवर में मंदिर निर्माण की बात के लिए भाजपा को कोसने और धमकाने वाले शिवसेना प्रमुख के अंदाज इस बार बदले-बदले से नजर आ रहे थे। मोदी सरकार को मंदिर निर्माण से कोई नहीं रोक सकता। उद्धव ठाकरे ने कहा कि राम लला से उन्होंने चुनाव बाद आने का वादा किया था और वही निभा रहे हैं। उद्धव ठाकरे के मुंह से एक अजीब बात भी सुनने को मिली कि मैं अयोध्या आता रहूंगा लेकिन अगली बार कब आऊंगा, पता नहीं। उद्धव ठाकरे इस बार पूरी शिवसेना के साथ अयोध्या पहुंचे थे, लेकिन पिछली बार जैसा ताम-झाम देखने को नहीं मिला। उद्धव ठाकरे के साथ बेटे आदित्य ठाकरे और संजय राउत के साथ साथ महाराष्ट्र से चुन कर आये सभी 18 सांसदों भी अयोध्या में राम लला का दर्शन किये।
पूरे साढ़े चार साल तक भाजपा के साथ कभी तकरार कभी इकरार वाले रिश्ते निभाने वाली शिवसेना ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा के साथ मिलकर चुनाव में जाने का फैसला किया जो चुानवी कसौटी पर खड़ा भी उतरा। लेकिन इस साल ही महाराष्ट्र में विदानसभा चुनाव भी है जिसको लेकर दोनों दलों में कोई भी साझेदारी की बात नहीं बनी है। शिवसेना जो केंद्र की राजनीति से ज्यादा प्रदेश की राजनीति में दिलचस्पी रखने के लिए जानी जाती रही है। ऐसे ही एक सवाल के जवाब में बीते दिनों संजय राउत ने यह कह कर साफ कर दिया कि ठाकरे उप पद नहीं लेते। ठाकरे परिवार के सदस्य हमेशा प्रमुख बने हैं। मतलब साफ है महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभाने के मंसूबे अभी से पाल रखे हैं। ऐसे में राज्य में काबिज फडणवीस नीत भाजपा गठबंधन सरकार आगामी विधानसभा चुनाव के वक्त शिवसेना से कम सीटें जीतती हैं तो शिवसेना की ओर से सीएम इन वेटिंग के सबसे प्रखर नाम आदित्य ठाकरे क्या राज्य के सर्वोच्चय पद पर काबिज हो पाएंगे।
दूसरी स्थिति यह भी है कि अगर दोनों दलों में सीटों को लेकर बात नहीं बन पाती है और अकेले चुनाव मैदान में जाना पड़ता है तो नरेंद्र मोदी की लार्जर देन लाइफ छवि और देश की सबसे शक्तीशाली पार्टी से मुकाबला करना शिवसेना के लिए आसान नहीं होगा। गौरतलब है कि महाराष्ट्र की राजनीति में भी अयोध्या और राम मंदिर निर्माण का प्रभाव हमेशा से प्रमुखता से रहा है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसका असर उत्तर भारत के बाद सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में है। इसके दो प्रमुख पहलु हैं एक तो महाराष्ट्र के शहरों में उत्तर भारतीयों की अच्छी खासी तादाद और दूसरा, 1992 में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद हिंसा के लपेटे में मुंबई शहर ही रहा था। ऐसे में अयोध्या मुद्दा महाराष्ट्र के चुनावों में खासा असर डाल सकता है। उद्धव ठाकरे दो रास्ते की सवारी पर चल रहे हैं जहां एक तरफ मोदी सरकार को मंदिर निर्माण से कोई नहीं रोक सकता की बात कह रहे हैं वहीं दूसरी तरफ खुद को हिंदुत्व के आइकन के रुप में स्थापित करने की कोशिश में भी लगे हैं। हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर बाल ठाकरे के जमाने से चलती रही शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे इस बात से भलि-भाति अवगत हैं कि धर्म को भले ही राजनीति से अलग करने की बात होती रही है राजनीति में धर्म हमेशा से प्रमख स्थान रखता रहा है। इसलिए राम मंदिर का मुद्दा भले ही दशकों पुराना हो लेकिन अभी भी इसकी आंच पर सियासत के कई व्यंजन पकाए जा सकते हैं।