वर्षा ऋतु भादवा संग छम – छम आवै बिरखा बींदणी
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श्रावण मास को विदाकर खुशगवार भादवा देशभर में पूरी तरह से दस्तक दे चुका है । सावन मे हुई अच्छी बरसात से किसान तो प्रमुदित हुए ही है ,जन-मन भी पावस के प्रथम स्पर्श से आल्हादित हो उठा है। वर्षा ऋतु सदियों सैन्य कवियों, कलाकारों एवं साहित्यकारों को स्फूर्त करती है । विभिन्न यूगों में समय-समय पर, अनेक साहित्यकारो, कलाकरों नें इस ऋतु का बेखुबी से गुणगान करके अपनी लेखनी से धन्य किया है । पावस का आगाज मनुष्य ही नहीं,जड़-चेतन सभी को बहुत आनंदित करता है। पेड़-पौधे जो जेठ तक विरक्त फकीरों-से सर झुकायें खड़े रहते है, सावन-भादवा का महीना आते ही परवान चढते सुसम्पन्न गृहस्थियों की तरह फले-फुले नजर आ रहे है। पक्षियों का किलोल, उत्साह भी बड़े चरम पर पहुंच जाता है । सावन-भादवा का सानिध्य पाकर मोर मद मस्त होकर नाचने लगते है, पपीहे की पीहू-पीहू इस आनंद को चार चांद लगा देते है, साथ ही पेड़ पर बैठी कोयल की कूक भी ह्रदय को मीठास भरी उमंग से भरती है । जब ये पूरी प्रकृति बहुत सुंदर हरियल होकर झूम रही होती है तो भला मनुष्य इस उल्लास से क्यों नही झूमेगा । इसी समय संगीत की दुनिया की ओर रूख करें तो इस ऋतु मे अनेकानेक गीत इस आनंद से पैरो में घुंघरू बांध कर नचाते है- ‘सावन-भादवा में तीज झूले पड़े, “सावन का महीना पवन करे शोर…, “ओ सजना बरखा बहार आई रस की फुहार लाई…, रिमझिम के गीत गाये भीगी रातों में…,आई बरखा बहार,काली घटा छाये मोरा मन तरसाये”, आदि अनेक प्रकार के लोकप्रिय गीत जो खासकर वर्षा ऋतु पर लिखे गए है। श्रंगार रस एवं अनुपमेय उपमाओं के धनी महाकवि कालिदास ने अपने काव्य ‘मेघदूत’ में मेघ को विरही यक्ष का दूत बनाकर जो वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। हिमालय पर्वत की तलहटी मे स्थित अल्कापुरी के राजा कुबेर द्वारा समय पर शिव आराधना हेतु पुष्प नही लाने पर एक नवविवाहिता यक्ष को दक्षिण दिशा मे एक वर्ष तक चले जाने का आदेश दिया जाता है । उधर अपनी नवविवाहिता पत्नी के विरह मे यक्ष ने मेघ को प्रणयदूत बनाकर उसके माध्यम से अपनी प्रेयसी को संदेश भिजवाता है । श्री कृष्ण जन्माष्टमी भी इसी महीने मे आती है।
कालीदास का यह काव्य श्रंगार रस का चरम है। इन्होंने अपने एक अन्य महाकाव्य ‘ऋतसंहार’ मे भी वर्षा ऋतु का बहुत ही उम्दा वर्णन किया है।
अरब सागर से उठने वाला यह मानसून भारतीय जनमानस प्राण तुल्य है। देश के व्यवसायिक एंव औद्योगिक जगत का भी यही आधार है। कृषकों की आंखे इसके इंतजार मे पावस के दस्तक से ही चमकती
और वे फूले नही समाते। मानसून की कृपा उनके जीवन को धन्य कर देती है । जेठ-बैशाख की चिलचिलाती धूप मे खेतों मे गिरे उनके श्रम के पसीने की बूंदें मेहरबानी से मोती बन जाती है । वर्षाऋतु एवं विरही जनों का भी अद्भुत संयोग संबंध है। अपनी प्रेयसीयो से परदेश दूर बैठे विरहीजनों के मन-प्राणों मे सावन आग लगा देता है । ‘हीरो’ फिल्म के गीत के बोल किसी विरही की संवेदनाओं को का सटिक बयां करता है –
■” एक तो सजन मेरे पास नही रे,
दूजे मिलन की कोई आस नहीं रे
उस पर यह सावन आया,
आग लगाई, हाय! लंबी जुदाई ।
रामचरित मानस मे तुलसीदासजी ने वर्षाऋतु को अध्यात्म से ज्ञान विरल संदेश दिया है । सीता विरह मे प्रवर्षण पर्वत पर स्थित लक्ष्मण के साथ बैठे प्रभु श्रीराम द्वारा लक्ष्मण को कुछ यूं कहा-
■’घन घमंड नभ गरजत घोरा, पियाहीन मन डरपत मोरा’
और इस तरह से वर्षा ऋतु एवं विरहीजनों के संबंध को अमर बना दिया है। इस ऋतु के माध्यम से स्वयं श्रीराम द्वारा कही यह लाइने अध्यात्म, भक्ति एवं का अनूठा संदेश दिया है –
■’दामिनि दमक रह न घन माहि ।
खल के प्रिति जथा थिर नाही ।।
इनका तात्पर्य यह है कि जिस तरह बिजली चमककर एक क्षण भी बादल मे नही ठहरती है, दुर्जन व्यक्ति से प्रीत भी कभी स्थिर नही होती ।
‘ससि संपन्न सोह महि कैसे ।
उपकारी के संपति जैसे ।।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भ्राता लक्ष्मण को कहते है कि धन धान्य से हरी-भरी पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही है जैसे कि उपकारी की संपत्ति । उपकारी संपत्ति का अर्जन कर उन्हे कल्याणकारी विसर्जन के लिए करते है, पृथ्वी भी शीघ्र ही अपने धन धान्य एवं फल-फूलों को अपनी प्रजा में बांट देती। मानस में ही नही बल्कि अन्य कई ग्रंथो मे भी वर्षा ऋतु के माध्यम से ज्ञान के अविस्मरणीय आख्यान लिखे गए है ।
राजस्थान के प्रसिद्ध कवि कन्हैयालाल सेठिया ने तो वर्षा ऋतु को राजस्थानी भाषा मे “बिरखा बींदणी”
से संबोधित कर धन्य कर दिया । बींदणी यानी नवविवाहिता बहु को राजस्थानी भाषा मे कहते है।
उन्ही के शब्दो में-
” लूम-झूम मदमाती,
मन बिलमाती सौ बळ खाती
गीत प्रीत रा गाती,
हंसती आवै बिरखा बींदणी ।
ठुमक-ठुमक कर पग धरती,
नखरौ करती हिवड़ौ भरती,
बींद ज्यूं पगलिया भरती,
छम-छम आवै बिरखा बींदणी ।।
घर-घर घूमर रमती, रूकती थमती
बीज चमकती, झब-झब पळकां करती
भंवती आ आवै बिरखा बींदणी ।।”
– ✍🏻 सुबेदार रावत गर्ग उण्डू