Mon. Jan 13th, 2020

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गरीबी और अमीरी (व्यंग्य)

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वोट दिलाऊ बजट पधारने से पहले यह चर्चा ज़ोरशोर से हो रही थी कि गणतन्त्र से गण गायब हो रहा है और तंत्र काबिज है। अब आम मतदाता बेहद खुश है, अगले बरस छुट्टियों में कहाँ जाना है इस बारे योजना पका रहा है। समझदार शासक, वोट लुभावन बजट के प्रावधान और वर्ल्ड डाटा बैंक के आंकड़ों को मिक्स कर लोकतान्त्रिक ड्रिंक बनाकर गटक रहा है, साथ में खुशी के बड़े बड़े पारंपरिक लड्डू भी सीधे मुंह में परोसे जा रहे हैं ताकि कोई गलत बात ज़बान पर न आए। पुराने लोकगीत नए संगीत की थाप पर गाए जा रहे हैं कि गरीबी बस अब खत्म होने ही वाली है। अखबारों के लेख भी यही समझा रहे हैं। यह वास्तव में ऐतिहासिक उपलब्धि है कि करोड़ों गरीबों की मूलभूत ज़रूरतें पूरी होने के साथ गरीबी उन्मूलन की रफ्तार बहुत तेज़ हो चुकी है। तकनीकी आधार पर महसूस किया जाए तो यह नृत्य करने को प्रेरित करने जैसा है क्यूंकि आखिर यह रहस्य खुल ही गया है कि गरीबों की असली ज़रूरतें क्या हैं। सामाजिक रंग की आर्थिक चाशनी में लिपटे राजनीतिक कार्यों पर नज़र रखने के लिए नई आधुनिक शैली बहुत कामयाब साबित हुई है।
यह तो सचमुच सच है कि सही तकनीक प्रयोग करने से भी गरीबी का आंकड़ा कम निकलता है ठीक जैसे वन विभाग वाले कुछ समय बाद नए मुहावरों में वृक्ष गिनकर सहर्ष घोषणा करते हैं कि हमारे अंतर्गत आने वाला हरित क्षेत्र बढ़ गया है। इस बहाने वनकाटूओं को भी खुशी मनाने का हरा भरा अवसर मिल जाता है। वास्तव में हमारे कार्यालयों में सही सूचना उपलब्ध करवाने व नियमानुसार विवरणी भरकर उसे सही जगह भिजवाने का फार्मूला ग़ज़ब है। जब गरीबी खत्म होने का मदनोत्सव चल रहा हो, औक्सफ़ेम की सूचना शोर मचाने लगती है कि अमीरों और गरीबों के बीच वित्तीय असमानता तेज़ी से बढ़ रही है। यह अच्छी बात नहीं है। ऐसी रिपोर्ट के कारण हमारे यहां अक्सर मौलिक अधिकारों पर चर्चा और खर्चा बढ़ता ही रहता है। अगली महत्वपूर्ण बैठक कब करनी है इस बारे हमें  बैठक खत्म करने से पहले ही अगली तिथि  निश्चित करनी होती है। कई बार ऐसा भी लगने लगता है कि गरीबी एक मानसिक स्थिति है।

अब ज़रा अमीरी की बात भी कर लें, देश के राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक नायकों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा के मामले में हम बहुत अधीर अमीर हो चले हैं। कोई भी शक्तिशाली ज़बान किसी को भी, कहीं भी, कुछ भी, कभी भी समझाने में सक्षम हो चुकी है। इस संबंध में हमने सोशल मीडिया का अनंत सदुपयोग कर दुनिया भर में अपनी संस्कृति, सभ्यता परचम लहरा रखा है। हम लिंगभेद, जातीय, सांप्रदायिक व धार्मिक वैमनस्य, कानून व्यवस्था के मामले में भी अत्याधिक अमीर होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य की बात करें तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के साथ हम सबसे युवा देश भी हैं, साथ-साथ डायबिटीज़ की मिठास भी हमें खूब अमीर बना रही है। विकासजी के शानदार नृत्य का जलवा पूरे विश्व को मोहित कर रहा है इस बीच कुछ नागरिकों का पेट भरने से रह भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है। इससे देश की महानता तो गरीब नहीं होती।
कुछ सामाजिक विचारक, विचारों में बढ़ती जा रही गरीबी खत्म या थोड़ा कम करने की बात करते हैं। अगर विचार वाकई अमीर हो जाएं तो क्या गरीबी खत्म हो सकती है। जब सच हो सकने वाले स्वप्नों में कर्ज़ माफी, एक रुपए किलो चावल, मिक्सी, कंप्यूटर, लैपटॉप, देसी घी या लालपरी आनी शुरू हो जाए तो समावेशी विकास और मानव पूंजी सूचकांक की बातें देश को अमीर बनाने लगती हैं। यह लोकगीत सही गाया जा रहा है कि गरीबी के जाने का समय आ गया है।

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