आज उनका दिन है,जो ताउम्र छत को तरसते हैं लेकिन औरों के लिए महलों का निर्माण करते हैं।आज उनका दिन इसी रूप से सदियों से मनाया जा रहा है,इसी रूप में जिस रूप में आज हम सब बड़े-बड़े भाषण देकर मना रहे हैं लेकिन उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया।अगर परिवर्तन आया होता तो आप यकीन मानिए कि इस भयंकर महामारी के दौरान भी देश के महानगरों में इस तरह की लाखों की भीड़ नहीं जुटती।सिर्फ और सिर्फ पांच सौ रूपये के लिए बैंक में भीड़ नहीं लगती।सिर्फ और सिर्फ थोड़े से चावल और गेहूं लेने के लिए पी डी एस की दुकानों पर यहाँ भीड़ ना उमड़ती।गजब है अपने देश में चाहे सेंसेक्स कितनी ही उछाल मार दे लेकिन मजदूर की दिहाड़ी कभी भी उछाल नहीं मारेगी।आजादी के इतने दिनों बाद भी और जिस दिन ये नजदूर क्रान्ति हुई थी,उस दिन के बाद भी आज तक मजदूरों की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन इनके जीवन में नहीं आया।यदि आप भट्ठा मजदूरों,भवन निर्माण,खेत मजदूरों और छोटे-बड़े उद्योगों में काम कर रहे मजदूरों की बात करें तो आप हैरान हो जाएंगे कि आज भी उनकी स्थिति बद से बदतर ही है। चाहे मजदूरी की बात हो,काम के घण्टो की बात हो या अन्य कानूनी सुविधाओ की बात हो,कही भी उन्हें कुछ भी नहीं मिलता।यहां तक उनके शरीरिक,मानशिक शोषण की ख़बरें रह-रहकर आती रहती हैं,जो न केवल मानवता को कलंकित करती है बल्कि सत्ता में बैठे लोगों को भी विचलित करती हैं लेकिन उनकी चमड़ी किसी और चीज की बनी है दिल तो उनके शरीर में है ही नहीं।अगर यह भी कह दिया जाए तो शायद असंगत नहीं होगा कि मजदूरों के संग़ठन होने का दम्भ भरने वाले भी ऐसे ही निकले जैसे नेता लोग।मसलन सही में मजदूर न केवल मजे से दूर है बल्कि रोटी से भी दूर है और लगता है कि शायद इस हँसती-खेलती दुनिया से भी दूर है।मनरेगा भी इस घुन में पिस रहा है।जबकि हम सब यह मानते हैं और बोलते हैं कि जब तक देश का हर वर्ग प्रगति नहीं करेगा तब तक देश की सम्पूर्ण उन्नति-प्रगति संभव ही नहीं है लेकिन कोई भी समाज के इस बड़े और महत्वपूर्ण तबके की और ध्यान ही नहीं दे रहा।ये एक अलग बात है कि सब के सब अपने घोषणापत्रों में इनके लिए बड़ी -बड़ी बातें लिखना अपनी शान समझते हैं ताकि इन्हें बरगलाया जा सके।मेरे समेत मेरे जैसे लोग भी लेख/कविताएं लिखकर अपने काम की इतिश्री मान लेते हैं कि उन्होंने कुछ किया जबकि अगर मजदूरों का भला करना है तो उसके लिए अब लेख,कविताओं और भाषणों की जरूरत नहीं है बल्कि सच में धरातल पर कुछ करने की जरूरत है।स्वयं लेखक इस बात को बहुत गम्भीरता से जानता है क्योंकि भठ्ठा मजदूरी से लेकर फेरी तक की और भवन निर्माण और खेत मजदूरी तक का अपना जातीय अनुभव है।आइए!अगर हम चाहते हैं कि वास्तव में देश प्रगति करे तो सबसे पहले कानून के अनुसार मजदूरों को उनके तमाम तरह के हक़ दिए जाएं लेकिन कागजों में नहीं,उन्हें मानवीय अधिकार भी दिए जाएं और साथ ही काम के घन्टे जो तय किए गए हैं,उनकी पालना की जाए।जिस तरह देश भर में मंहगाई का सूचकांक बढ़ता है,उसी आधार पर हर छह महीने बाद उनकी दिहाड़ी भी बढ़ाई जाए और इसके अलावा भी उनके लिए आज के दौर में बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि मजदूर भी यह महसूस कर सके कि वो भी एक इंसान है।