जब दीपक ने ठानी लड़ने की
तूफ़ान बुझाने जब आए
वो दीपक सूरज से बढ़कर
तूफ़ानों से लड़ जो जाए
अँधियारे अस्तित्व को अपने
जब फैलाने लगते हैं
तब दीपों से ही धू धू करके
सूर्य निकलने लगते हैं
जब मानव मन की कमज़ोरी
होने लगती है हावी तो
सहस्रार द्वार तब खुलते हैं
शक्तिपूँज बन जाता वो
है मनुज नहीं , अवतारी वो
जो पथ से विपथ ना होता है
जो भय के पार जा न सका
मनुष्य वही बस रोता है
जब मन महादेव हो जाता है
और जीवन बनता जगन्नाथ
रग-रग में राम समाया हो
सौभाग्य सदा उसके है साथ
आँखें सपने साकार लिए
मुट्ठी अपने दो चार लिए
है जीत मिलेगी बस उसको
आया जो हाथों में हार लिए
बस ऐसा ही होता है दीप
एक पल की ख़बर नहीं होती
फिर भी लड़ता वो लगातार
भले चले उसकी ज्योति
अब फिर तमराज से युद्ध ठना
दीपक ने लड़ने की ठानी
है तूफ़ानों का फिर से ज़ोर
पर इसने हार नहीं मानी