हाँ मैं मजदूर हूँ 

कविता लेख(कहानी)
मजदूर हूँ मैं इन्कार नहीं
मजबूर हूँ पर लाचार नहीं
व्यवस्था का शिल्पकार हूँ
मैं सबसे बड़ा चित्रकार हूँ ।
उठाते हैं सभी फायदे
मेरे बहते पसीने का
मैं बनाता हूँ वो महल
जो बंगला है अमीरो का।
सभी तो मजदूर ही हैं
चाहे अमीर हो या गरीब
मेहनत बिना कहाँ किसे
रोटी होता है नसीब।
कोई छोटा कोई  बड़ा
मजदूर ही तो हैं
पढ़ा लिखा पेन चलाये
पर होता मजदूर ही तो है।
भारत माँ का असली सपूत
मिट्टी में सना जो शरीर
जिसने हर पल सीचे धरती
उगाये रोटी कहलाये मजदूर।।
वो सपना है उन आँखो का
जो देखती है हर आँख
उन सपनो को पूरा करती
मजदूर के ही दो हाथ।
उन हाथो को सहारा चाहिए
वक्त पर निवाला चाहिए
शान शौकत की अभिलाषा नहीं
इनके हक का माहौल चाहिए।
कर लेंगे ये मेहनत
बना डालेंगे आपका आशियाना
पहले भूख और बदहाली से
बचने का सहारा चाहिए।
बुलंदी का यह जीव
व्यवस्था की नींव है
इसे तुच्छ समझने की गलती न करो
यही हर कुर्सी की रीढ़ है।
                                  आशुतोष

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