प्रकृति पुलकित हो मुस्का रही

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लेखिका -डा सरिता चन्द्रा 

यौवन चढ़ा धरा पर, हरियाली अपना पैर पसार रही

मंजरी से सजा तरु बदन, बरखा प्रेम रस छलका रही

मनमोहक सुगंध बिखेरे पवन, नदी सुगम संगीत सुना रही

तटनी झरनों की मौज देख, प्रकृति पुलकित हो मुस्का रही

पुष्प पात से सजी धरा, दुल्हन सी खिलखिला रही

पर्वत शिखर उतरा बादल, श्वेत काले नीले रंग बिखरा रही

देख अपनी काया सौन्दर्य प्रकृति, खुद पर इतरा रही

मौसम की चंचलता देख, प्रकृति पुलकित हो मुस्का रही

सुनहरी धूप की किरणों संग, बारिश की बूंदे झूम-झूम कर गा रही

इन्द्रधनुषी रंग उभरा नभ में, यह प्रतिबिम्ब स्नेह रंग दिखा रही

धरा-गगन मिलन से बना क्षितिज, सुंदर अनोखा रूप बिखरा रही

सुंदर अलौकिक दृश्य देख-देख, प्रकृति पुलकित हो मुस्का रही

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